नर हो न निराश करो मन को - मैथलीशरण गुप्त Nar ho na nirash kro man ko || maithili sharan gupt ...
मैथलीशरण गुप्त
तो नमस्कार दोस्तो ।।।
आज की हमारी नई पेशकश हाजिर है आज हम कुछ ऐसा जानेगे जो आपने अपने बचपन मे जरूर पढ़ा होगा और पढ़ा ही क्यों न हो ।
हिंदी की इतनी महान शख्शियत के बारे में जो बात हो रही हैं
जी हाँ मैथलीशरण गुप्त जी के बारे में इनकी मशहुर कविता तो सुनी ही होगी अपने शीषर्क पढ़ लीजिये अभी तक नही पता चला लो ।लेकिन उससे पहले हम इनके बारे में थोड़ा जान लेते हैं ।
नाम - मैथिलीशरण गुप्त
जन्म स्थान -चिरगांव झांसी (up)
जन्मतिथि - 3 अगस्त 1886
मृत्युतिथि - 12 दिसंबर 1964
आयु - 78 वर्ष
राष्ट्रीयता - भारतीय
व्यवसाय - नाटककार, कवि , राजनेता , अनुवादक
भाषा - खड़ीबोली, ब्रज
शिक्षा - प्राथमिक चिरगांव, मैकडोनाल्ड हाई स्कूल झांसी
पिता - सेठ रामचंद्र गुप्त
माता - काशीबाई गुप्ता
भाई - सियाराम शरण गुप्त
पत्नी - श्रीमती सरजू देवी
बच्चे - उर्मिल चरण गुप्ता
प्रेणना स्रोत - महावीर प्रसाद द्विवेदी । द्विवेदी युग के।
पुरष्कार 1954 मे पदमभूषण, डी. लिट् . की उपाधि, साहित्य वाचस्पति । हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार।
रचनाएँ - भारत - भारती, यशोधरा, साकेत, पंचवटी, वीरांगना, मेधनाथ - वध ,
मैथलीशरण गुप्त आधुनिक काल के महत्वपूर्ण कवि रहे है ,
ये कट्टर वैष्णव धर्म को होते हुए भी विश्व बंधुत्व की भावना के प्रणेता रहे हैं।
इनके अमूल्य योगदान को हिंदी साहित्य हमेसा याद रखेगा
कविता
1. कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहकर नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ आहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ ना हो
कुछ तो उचित करो तन को
नर हो न निराश करो मन को
2. संभालो के सुयोग न जाए भला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को और निरा अपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर हैं अवलंबन को
नर हो और न निराश करो मन को
3. जब प्राप्त तुम्हे सब तत्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्व कहाँ
तुम स्वत्व सुधा रस पान करो
उठके अमृत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।।
4. निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ है ध्यान रहे
मरणोत्तर गुंजित ज्ञान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन करो
नर हो न निराश करो मन को ।।
5. प्रभु ने तुमको कर दान दिया
सब वांछित वस्तु विधान किये
तुम प्राप्त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो न निराश करो मन को ।।
6. किस गौरव के तुम योग्य नही
कब कौन तुम्हे सुख भोग्य नही
जान हो तुम भी जगदीश्वर की
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो न निराश करो मन को।।
7. करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरंतर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक निष्क्रिय जीवन को
नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ कम करो
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